कल रविवार था। सोचा, कुछ देर यूँ ही गाड़ी में भ्रमण किया जाय। सुखद बात यह थी कि सड़क पर रोज़ की तरह गाड़ियों का जंगल नहीं था और मैं बिना लाल बत्ती के डर से गतिपूर्वक कहीं भी जा सकता था। पर मैं कहीं जा कहां रहा था?
एहसास हुआ कि सही मायने में भ्रमण का आनंद लेने के लिये कोई पूर्व-निर्धारित गंतव्य स्थान नहीं होना चाहिये। नहीं तो मन कई तरह के विचार बुनता रहता है……कहीं पहुंचने की इच्छा, समय पर पहुंचने की इच्छा, पहुंच कर क्या करना है, ट्रैफ़िक की खीज, लेट हो जाने की उत्कंठा……
पर जब आप कहीं न जा रहे हों, केवल ड्राइव कर रहे हों तो आप कार के इंजन की धव्नि सुन सकते हैं और जान सकते हैं कि आप की विश्वसनीय, निष्ठावान कार ठीक काम कर रही है या उसे किसी सम्स्वरण की आवश्यकता है।
आप किसी लाल बत्ती पर रुक कर उन लोगों को देख सकते हैं जो आपके साथ आ खड़ी हुई गाड़ियों में बैठे हैं। जब आप किसी में कुछ विशेष न खोज रहे हों तो आप उसे पूर्ण रूप से देख सकते हैं। परख कर देखिये। बहुत रोचक अनुभव रहेगा।
या फिर आप सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर के उन सूचना पट्टों को पढ़ सकते हैं जिन के पास से आप रोज़ गुज़रते तो हैं पर कभी यह जानने का समय न मिला हो कि वह कह क्या रहे हैं। या फिर यूँ ही घूमते-घूमते कई नये रास्ते या किसी जगह जाने के शार्ट-कट आप को ज्ञात हो जाते हैं।
राष्ट्रीय ध्वज कई जगह लगा रहता है पर रोज़ की भाग-दौड़ में ध्यान न दे पाये हों तो अब देख सकते हैं कि वह किस स्वतंत्रता और खिलखिलाहट से हवा में प्रतिदिन हम सब के लिये लहराता है।
हाँ जब किसी लक्ष्य के बारे में न सोच रहे हों तो किसी प्रियजन की याद भी आ सकती है और आप स्वच्छंदता से उसे फ़ोन कर सकते हैं……वहीं सड़क के किनारे खड़े-खड़े……बिना किसी पूर्वचिंतन या तैयारी के।
यही तो है मन की मुक्ति। नहीं? मन सब कुछ पूर्वनिर्धारित चाहता है। और पूर्वनिर्धारण तो स्वतंत्रता का विनाश कर देता है।
*
पर मन कहाँ शीघ्र हार मानता है? जल्द ही भूख ने सताना आरंभ कर दिया और किसी रेस्तरां की तलाश में चल पड़ा मैं। कोई ढाबा तो है नहीं यहां। और मेरी ड्राइव लक्ष्य-बद्ध हो गयी……
आज सुबह फिर सोमवार था। सब कुछ समयबद्ध। उनींदी आँखों से हनुमान जी को देखा और उनसे झगड़ा किया। हर बार की तरह इस बार भी स्वगत भाषण ही था। दूसरी ओर से तो कभी कोई उत्तर आता नहीं। या आता हो तो मैं निपट, उसे बूझने में हर बार अत्यंत निकम्मा ही सिद्ध होता हूँ। सो आज भी हुआ।
आफ़िस तक की ड्राइव सदा की तरह धीमी और उबाऊ थी। देर हो रही थी, ट्रैफ़िक हिल नहीं रहा था, सड़कें जाम थीं, हर ड्राइवर शत्रु जान पड़ता था, ट्रैफ़िक-सिग्नल कर्मचारियों को विलम्बित करने का षड्यंत्र प्रतीत होते थे……और कल फिर, मात्र एक खट्टा-मीठा लुभावना स्वप्न बन गया।
एहसास हुआ कि सही मायने में भ्रमण का आनंद लेने के लिये कोई पूर्व-निर्धारित गंतव्य स्थान नहीं होना चाहिये। नहीं तो मन कई तरह के विचार बुनता रहता है……कहीं पहुंचने की इच्छा, समय पर पहुंचने की इच्छा, पहुंच कर क्या करना है, ट्रैफ़िक की खीज, लेट हो जाने की उत्कंठा……
पर जब आप कहीं न जा रहे हों, केवल ड्राइव कर रहे हों तो आप कार के इंजन की धव्नि सुन सकते हैं और जान सकते हैं कि आप की विश्वसनीय, निष्ठावान कार ठीक काम कर रही है या उसे किसी सम्स्वरण की आवश्यकता है।
आप किसी लाल बत्ती पर रुक कर उन लोगों को देख सकते हैं जो आपके साथ आ खड़ी हुई गाड़ियों में बैठे हैं। जब आप किसी में कुछ विशेष न खोज रहे हों तो आप उसे पूर्ण रूप से देख सकते हैं। परख कर देखिये। बहुत रोचक अनुभव रहेगा।
या फिर आप सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर के उन सूचना पट्टों को पढ़ सकते हैं जिन के पास से आप रोज़ गुज़रते तो हैं पर कभी यह जानने का समय न मिला हो कि वह कह क्या रहे हैं। या फिर यूँ ही घूमते-घूमते कई नये रास्ते या किसी जगह जाने के शार्ट-कट आप को ज्ञात हो जाते हैं।
राष्ट्रीय ध्वज कई जगह लगा रहता है पर रोज़ की भाग-दौड़ में ध्यान न दे पाये हों तो अब देख सकते हैं कि वह किस स्वतंत्रता और खिलखिलाहट से हवा में प्रतिदिन हम सब के लिये लहराता है।
हाँ जब किसी लक्ष्य के बारे में न सोच रहे हों तो किसी प्रियजन की याद भी आ सकती है और आप स्वच्छंदता से उसे फ़ोन कर सकते हैं……वहीं सड़क के किनारे खड़े-खड़े……बिना किसी पूर्वचिंतन या तैयारी के।
यही तो है मन की मुक्ति। नहीं? मन सब कुछ पूर्वनिर्धारित चाहता है। और पूर्वनिर्धारण तो स्वतंत्रता का विनाश कर देता है।
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पर मन कहाँ शीघ्र हार मानता है? जल्द ही भूख ने सताना आरंभ कर दिया और किसी रेस्तरां की तलाश में चल पड़ा मैं। कोई ढाबा तो है नहीं यहां। और मेरी ड्राइव लक्ष्य-बद्ध हो गयी……
आज सुबह फिर सोमवार था। सब कुछ समयबद्ध। उनींदी आँखों से हनुमान जी को देखा और उनसे झगड़ा किया। हर बार की तरह इस बार भी स्वगत भाषण ही था। दूसरी ओर से तो कभी कोई उत्तर आता नहीं। या आता हो तो मैं निपट, उसे बूझने में हर बार अत्यंत निकम्मा ही सिद्ध होता हूँ। सो आज भी हुआ।
आफ़िस तक की ड्राइव सदा की तरह धीमी और उबाऊ थी। देर हो रही थी, ट्रैफ़िक हिल नहीं रहा था, सड़कें जाम थीं, हर ड्राइवर शत्रु जान पड़ता था, ट्रैफ़िक-सिग्नल कर्मचारियों को विलम्बित करने का षड्यंत्र प्रतीत होते थे……और कल फिर, मात्र एक खट्टा-मीठा लुभावना स्वप्न बन गया।
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