Thursday, September 20, 2007

अवलोकन



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

11.37 पूर्वाह्न

गर्मी बहुत है और जब ए.सी. भी काम न कर रहा हो तो बहुत दारूण अवस्था हो जाती है। वातानुकूलन के अभिप्राय से बनाये गये कमरों में अधिक खिड़कियां भी नही होतीं कि हवा आर-पार जा सके और दम न घुटे। हाँ, एक खिड़की है जिसे खोलने पर मैं पूर्व की ओर……घर की ओर देख सकता हूँ। पर बहुत देर खिड़की खोलना बड़े, काले, कैरिबियन मच्छरों को न्यौता देना है। कल रात भी आडोमास लगाई थी और उसकी गंध ने मुझे सहसा ही उस तिथि-रहित अतीत में परिवहित कर दिया जहां छत बर बिताई गर्मियों की रातें थीं, फ़ोल्डिंग बेड थे, सरहाने रखी हुई पानी की बोतलें थीं, घूमते हुए टेबल-फ़ैन से आते-जाते हवा के झोंके थे, मच्छरों की गुनगुनाहट थी………

फिर उसका स्वप्न देखा। शायद हम पानी पर चल रहे थे……एकाएक उसके पंख निकल आये और वह सुदूर आकाश में उड़ गयी।

आँख खुलने पर मन में पहली स्मृति यही थी कि अब हवाई यात्रा में मुझे चक्कर आने लगे हैं और आँख-कान में कुछ पीड़ा का अनुभव होता है। इसके बाद नींद फिर हावी हो गयी और लगा जैसे समुद्र तट पर खड़ा हूँ। बहुत सी लहरें चट्टानों से टकरा कर टूट रहीं थीं।

आज काले चने खाने की इच्छा थी पर शायद पानी कम पड़ गया और चने लग गये। खाना बनाना कभी ठीक से नहीं आया मुझे। शायद पर्याप्त रुचि नहीं है, इसलिये।

4.14 अपराह्न

सवा-चार बज रहे हैं। बाहर हवा बहुत तेज़ है और आकाश में बादल घिर आये हैं। सुबह भी जब आफ़िस आया तो वर्षा तेज़ थी।

पार्किंग-लाट से आफ़िस तक कुछ दूर पैदल चलना पड़ता है। वर्षा इतनी तेज़ और पैनी थी कि कार में कुछ देर बैठना ही उचित समझा। पहले-पहले मन में कुलबुलाहट थी कि देरी हो रही है। पर प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था, सो बैठे-बैठे रस्सी की तरह लड़ीवार गिरती वर्षा को देखने लगा जो नीले-काले आकश के किसी अज्ञात कोने से टंगी हुई सी प्रतीत होती थी। निस्तब्ध सा कुछ क्षण देखता रहा और वर्षा पूरे वेग से गिरती रही। कभी-कभी ऐसा लगता मानो तेज़ बौछार का पर्दा हवा में लहरा रहा हो और कभी लगता जैसे कोई विशालकाय जल-पर्वत कार की छत तोड़ कर मानव और प्रकृति के बीच के सब अवरोध समाप्त कर देगा। तभी मेरा ध्यान सामने वातरोधी शीशे पर गया। इंजन और वाइपर बंद थे और मैं स्पष्ट देख सकता था कि कैसे पानी के अनगिनत सर्प ऊपर से नीचे की ओर विक्षिप्तता से दौड़े चले जा रहे हैं। एक अजब सी, अनोखी उन्मादी प्रतिस्पर्धा में वे एक दूसरे का रास्ता काटते, एक दूसरे को ही विभिन्न आकारों में काटते, अबाध दौड़े चले जाते और अगले ही क्षण सभी शीशे के तल तक पहुँच नष्ट हो जाते……

कहीं दूर से बिजली कड़कने की आवाज़ आयी। पता नहीं बाह्य ध्वनि थी अथवा आंतरिक……परंतु उसी क्षणिक चमक में सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे गया……अपना अहं, अपनी तृष्णा, सदा कुछ पाने की……आगे……और आगे दौड़ते जाने की लालसा, जो है उसकी अवहेलना, निरंतर किसी न किसी प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ देने की उन्मत्तता……और फिर अंत में सब यहीं धरा-धराया छोड़ कर संसार से चले जाने का शाश्वत सत्य।

कुल 12 मिनट में सूर्य देव फिर अपने पूरे वैभव के साथ जीवन-रश्मियां बिखेरने लगे और मैं चमकती धूप में धुला, उजला मन लिये आफ़िस की ओर चल पड़ा।

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