Monday, September 24, 2007

लक्ष्य-रहित होने का आनंद



कल रविवार था। सोचा, कुछ देर यूँ ही गाड़ी में भ्रमण किया जाय। सुखद बात यह थी कि सड़क पर रोज़ की तरह गाड़ियों का जंगल नहीं था और मैं बिना लाल बत्ती के डर से गतिपूर्वक कहीं भी जा सकता था। पर मैं कहीं जा कहां रहा था?

एहसास हुआ कि सही मायने में भ्रमण का आनंद लेने के लिये कोई पूर्व-निर्धारित गंतव्य स्थान नहीं होना चाहिये। नहीं तो मन कई तरह के विचार बुनता रहता है……कहीं पहुंचने की इच्छा, समय पर पहुंचने की इच्छा, पहुंच कर क्या करना है, ट्रैफ़िक की खीज, लेट हो जाने की उत्कंठा……

पर जब आप कहीं न जा रहे हों, केवल ड्राइव कर रहे हों तो आप कार के इंजन की धव्नि सुन सकते हैं और जान सकते हैं कि आप की विश्वसनीय, निष्ठावान कार ठीक काम कर रही है या उसे किसी सम्स्वरण की आवश्यकता है।

आप किसी लाल बत्ती पर रुक कर उन लोगों को देख सकते हैं जो आपके साथ आ खड़ी हुई गाड़ियों में बैठे हैं। जब आप किसी में कुछ विशेष न खोज रहे हों तो आप उसे पूर्ण रूप से देख सकते हैं। परख कर देखिये। बहुत रोचक अनुभव रहेगा।

या फिर आप सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर के उन सूचना पट्टों को पढ़ सकते हैं जिन के पास से आप रोज़ गुज़रते तो हैं पर कभी यह जानने का समय न मिला हो कि वह कह क्या रहे हैं। या फिर यूँ ही घूमते-घूमते कई नये रास्ते या किसी जगह जाने के शार्ट-कट आप को ज्ञात हो जाते हैं।

राष्ट्रीय ध्वज कई जगह लगा रहता है पर रोज़ की भाग-दौड़ में ध्यान न दे पाये हों तो अब देख सकते हैं कि वह किस स्वतंत्रता और खिलखिलाहट से हवा में प्रतिदिन हम सब के लिये लहराता है।

हाँ जब किसी लक्ष्य के बारे में न सोच रहे हों तो किसी प्रियजन की याद भी आ सकती है और आप स्वच्छंदता से उसे फ़ोन कर सकते हैं……वहीं सड़क के किनारे खड़े-खड़े……बिना किसी पूर्वचिंतन या तैयारी के।

यही तो है मन की मुक्ति। नहीं? मन सब कुछ पूर्वनिर्धारित चाहता है। और पूर्वनिर्धारण तो स्वतंत्रता का विनाश कर देता है।

*

पर मन कहाँ शीघ्र हार मानता है? जल्द ही भूख ने सताना आरंभ कर दिया और किसी रेस्तरां की तलाश में चल पड़ा मैं। कोई ढाबा तो है नहीं यहां। और मेरी ड्राइव लक्ष्य-बद्ध हो गयी……

आज सुबह फिर सोमवार था। सब कुछ समयबद्ध। उनींदी आँखों से हनुमान जी को देखा और उनसे झगड़ा किया। हर बार की तरह इस बार भी स्वगत भाषण ही था। दूसरी ओर से तो कभी कोई उत्तर आता नहीं। या आता हो तो मैं निपट, उसे बूझने में हर बार अत्यंत निकम्मा ही सिद्ध होता हूँ। सो आज भी हुआ।

आफ़िस तक की ड्राइव सदा की तरह धीमी और उबाऊ थी। देर हो रही थी, ट्रैफ़िक हिल नहीं रहा था, सड़कें जाम थीं, हर ड्राइवर शत्रु जान पड़ता था, ट्रैफ़िक-सिग्नल कर्मचारियों को विलम्बित करने का षड्यंत्र प्रतीत होते थे……और कल फिर, मात्र एक खट्टा-मीठा लुभावना स्वप्न बन गया।

Saturday, September 22, 2007

अतिथि: एक लघु कथा



मैं और सुमित किशोरावस्था से ही अच्छे मित्र और बाद में एक ही व्यापार में साझीदार रहे हैं। जहां तक मैं सुमित को जानता हूं वह एक महत्वाकांक्षी तथा गतिशील व्यक्ति है और भावनाओं का उसके जीवन में कोई विशेष स्थान नहीं। पिछले वर्ष जब मैं अपने अन्य व्यापारी मित्रों से मिलने विदेश गया तो सुमित ने भी मेरे साथ भारत आने की तैयारी कर ली क्यों कि प्रतिवर्ष औपचारिकतावश ही सही वह अपने परिवार से मिलने भारत आता ही था।

हमें भारत आये दस दिन हो चुके थे और पांच दिनों बाद वह विदेश जाने वाला था, इस लिये मैं उस से मिलने उस के घर जा पहुंचा। अभी मैं ड्राइंग रूम में बैठा ही था कि मुझे सुमित, उसकी पत्नी तथा छोटी बच्ची नेहा के स्वर सुनाई दिये जो कि वार्षिक आयोजन में सम्मिलित किये जाने वाले अतिथियों की बनाई जाने वाली सूची के विषय में बात कर रहे थे। तभी उसकी पुत्री का स्पष्ट स्वर सुनाई दिया, “पापा, अतिथियों की सूची में आप एक नाम लिखना तो भूल ही गये – सुमित सहगल का। मैने अपने सभी मित्रों को इस नाम के विषय में बता कर कहा है कि यह हमारे विशेष अतिथि हैं।“

भोलेपन में कही उसकी यह बात सुन मैं आश्चर्यचकित रह गया और सोचने लगा कि छोटी बच्ची के इस सरल कथन से सुमित सम्भवतः जीवन में आपसी संबंधों के महत्व को जानने समझने लगे और मन की दूरियाँ सिमट कर भावनात्मक स्तर पर मुखर हो उठें।

Thursday, September 20, 2007

अवलोकन



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

11.37 पूर्वाह्न

गर्मी बहुत है और जब ए.सी. भी काम न कर रहा हो तो बहुत दारूण अवस्था हो जाती है। वातानुकूलन के अभिप्राय से बनाये गये कमरों में अधिक खिड़कियां भी नही होतीं कि हवा आर-पार जा सके और दम न घुटे। हाँ, एक खिड़की है जिसे खोलने पर मैं पूर्व की ओर……घर की ओर देख सकता हूँ। पर बहुत देर खिड़की खोलना बड़े, काले, कैरिबियन मच्छरों को न्यौता देना है। कल रात भी आडोमास लगाई थी और उसकी गंध ने मुझे सहसा ही उस तिथि-रहित अतीत में परिवहित कर दिया जहां छत बर बिताई गर्मियों की रातें थीं, फ़ोल्डिंग बेड थे, सरहाने रखी हुई पानी की बोतलें थीं, घूमते हुए टेबल-फ़ैन से आते-जाते हवा के झोंके थे, मच्छरों की गुनगुनाहट थी………

फिर उसका स्वप्न देखा। शायद हम पानी पर चल रहे थे……एकाएक उसके पंख निकल आये और वह सुदूर आकाश में उड़ गयी।

आँख खुलने पर मन में पहली स्मृति यही थी कि अब हवाई यात्रा में मुझे चक्कर आने लगे हैं और आँख-कान में कुछ पीड़ा का अनुभव होता है। इसके बाद नींद फिर हावी हो गयी और लगा जैसे समुद्र तट पर खड़ा हूँ। बहुत सी लहरें चट्टानों से टकरा कर टूट रहीं थीं।

आज काले चने खाने की इच्छा थी पर शायद पानी कम पड़ गया और चने लग गये। खाना बनाना कभी ठीक से नहीं आया मुझे। शायद पर्याप्त रुचि नहीं है, इसलिये।

4.14 अपराह्न

सवा-चार बज रहे हैं। बाहर हवा बहुत तेज़ है और आकाश में बादल घिर आये हैं। सुबह भी जब आफ़िस आया तो वर्षा तेज़ थी।

पार्किंग-लाट से आफ़िस तक कुछ दूर पैदल चलना पड़ता है। वर्षा इतनी तेज़ और पैनी थी कि कार में कुछ देर बैठना ही उचित समझा। पहले-पहले मन में कुलबुलाहट थी कि देरी हो रही है। पर प्रतीक्षा के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था, सो बैठे-बैठे रस्सी की तरह लड़ीवार गिरती वर्षा को देखने लगा जो नीले-काले आकश के किसी अज्ञात कोने से टंगी हुई सी प्रतीत होती थी। निस्तब्ध सा कुछ क्षण देखता रहा और वर्षा पूरे वेग से गिरती रही। कभी-कभी ऐसा लगता मानो तेज़ बौछार का पर्दा हवा में लहरा रहा हो और कभी लगता जैसे कोई विशालकाय जल-पर्वत कार की छत तोड़ कर मानव और प्रकृति के बीच के सब अवरोध समाप्त कर देगा। तभी मेरा ध्यान सामने वातरोधी शीशे पर गया। इंजन और वाइपर बंद थे और मैं स्पष्ट देख सकता था कि कैसे पानी के अनगिनत सर्प ऊपर से नीचे की ओर विक्षिप्तता से दौड़े चले जा रहे हैं। एक अजब सी, अनोखी उन्मादी प्रतिस्पर्धा में वे एक दूसरे का रास्ता काटते, एक दूसरे को ही विभिन्न आकारों में काटते, अबाध दौड़े चले जाते और अगले ही क्षण सभी शीशे के तल तक पहुँच नष्ट हो जाते……

कहीं दूर से बिजली कड़कने की आवाज़ आयी। पता नहीं बाह्य ध्वनि थी अथवा आंतरिक……परंतु उसी क्षणिक चमक में सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे गया……अपना अहं, अपनी तृष्णा, सदा कुछ पाने की……आगे……और आगे दौड़ते जाने की लालसा, जो है उसकी अवहेलना, निरंतर किसी न किसी प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ देने की उन्मत्तता……और फिर अंत में सब यहीं धरा-धराया छोड़ कर संसार से चले जाने का शाश्वत सत्य।

कुल 12 मिनट में सूर्य देव फिर अपने पूरे वैभव के साथ जीवन-रश्मियां बिखेरने लगे और मैं चमकती धूप में धुला, उजला मन लिये आफ़िस की ओर चल पड़ा।

Wednesday, September 19, 2007

मेरी सर्वोच्च सखी



6.15 पूर्वाह्न

एक और रात धौंकनी की आवाज़ सुनते-सुनते बीत चुकी है। साँस ठीक से नहीं आती। अंतिम श्वास आने वाली हो, ऐसा भी कोई आभास नहीं होता। अधलेटी अवस्था में पड़े-पड़े मेरा ध्यान एक बार फिर अपने मध्यपट की ओर चला गया है जो साँस की तीव्रता के साथ तेज़ी से गतिशील है। फेफड़े भी जल्द से जल्द, अधिक से अधिक धूल-पराग मिश्रित वायु अंदर खींचने के प्रयत्न में तल्लीन हैं। बीमारी में जैसा कदाचित सभी के साथ होता होगा, आंखे बंद करने पर माँ का छाया-चित्र मेरे सम्मुख आ जाता है। एक झरने की भांति उनकी युवावस्था, मध्य आयु और फिर वर्ष दर वर्ष हाथों पर……आँखों के किनारों पर……और धीरे-धीरे पूरे चेहरे पर आ जाने वाली कई झुर्रियों की अनेकों छवियां उमड़-उमड़ कर सामने आने लगती हैं।

6.30 पूर्वाह्न

अलार्म की ध्वनी से तन्मयता भंग हुई। अपना इनहेलर टटोल कर, संकीर्ण श्वास-नलिकाओं में साल्ब्युटामोल धकेलते हुए मैं फ़र्श पर चप्पल खोजता हूँ। बेटी को उठाने का समय हो गया है। उसे नहला-धुला कर, ठंडा दूध पिला कर, तैयार कर स्कूल भेजना है। तत्पश्चात दाढ़ी बना कर, नहा कर धुँधली धूप में निकलना है एक और दिन का सामना करने।

7.25 पूर्वाह्न

स्कूल-वैन अभी-अभी गयी है। कंधे पर स्कूल-बैग लटकाये, हाथ में पानी की बाटल लिये, अन्यमनस्क रूप से हाथ हिला कर, बाय-बाय बोल कर चली गयी बिटिया और मुझे फिर ABBA ग्रुप का गीत, “Slipping through my Fingers” याद हो आया।

हवा……आसमान……आज भी पिछले कई दिनों की तरह ही है……धूल के महीन कणों से प्रचुर…ऐसे कण, जो न केवल आपके फ़र्नीचर पर बल्कि आप के स्वभाव, आप के मन में भी बस जाते हैं और सब कुछ अस्पष्ट सा प्रतीत होने लगता है।

9.35 पूर्वाह्न

बिजली चली गयी है……फिर से……और पसीने की एक बूँद टोस्ट पर गिरने की ज़िद कर रही है। इस लिये जल्दी-जल्दी चाय नाश्ता समाप्त कर, माथे और कान के पीछे से पसीने को पोंछ कर कुछ देर आराम से बैठने की चेष्टा कर रहा हूँ। परंतु सड़क पर यातायात के बढ़ने से पहले ही मानसिक आवागमन आरंभ हो चला है और हाथ स्वत: ही डायरी-पेन की ओर बढ़ गये हैं।

एक बार फिर माँ की आकृति मन में कौंधने लगी है। उनकी प्रेम व ममता भरी दृष्टी के साये में बाकी सब कुछ बहुत क्षुद्र सा हो गया है। बचपन में जब कभी बीमार पड़ता, तो माँ रात भर सरहाने बैठी रहतीं। आज भी मुझे देख कर उनकी आँखों में वही चिर-परिचित शर्त-रहित मुस्कुराहट है जो मेरी अमीरी-ग़रीबी, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा या मेरे जीवन के जुड़ते-टूटते रिश्तों पर निर्भर नहीं है। माँ अपनी संतान को हर रूप में, हर परिस्थिति में स्वीकार करने को, अपना कहने को तत्पर रहती है। मैं चाहे कुछ भी हूँ……कुछ भी बन जाऊँ……अच्छा……बुरा, माँ का पुत्र सदा ही रहूँगा।

10.35 पूर्वाह्न

नम आँखों से घड़ी की ओर देखते ही एहसास हुआ कि काम पर जाने का समय हो गया है। परंतु कहीं जाने या किसी से मिलने की इच्छा नहीं है। चुनाचे पेन हाथ में थामे पुन: अपने अंदर झांकना प्रारंभ कर दिया। विभिन्न लोगों की आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं और वे सब अपने-अपने तरीके से मेरा समय चाहते हैं……अपने प्रति मेरी पूर्ण उपलब्धता के लिये आतुर। और मैं सोच रहा हूँ: कितने बेचारे हैं सब। अपने पास कुछ बांटने लायक न होते हुए भी मेरी ओर से पूरे अविभाजित ध्यान की आकांक्षा है उन्हे। मैं स्वयं भी तो कुछ अलग नहीं हूँ। अक्सर हम सभी का जीवन इसी बात पर आधारित होता है कि हम कितना पा सकते हैं……कुछ पाने के लिये कुछ देना आवश्यक है……तो फिर प्रयत्न प्राय: यही है कि कम से कम दे कर अधिक से अधिक कैसे पाया जा सकता है। चूंकि किसी से कुछ पाने के लिये उस पर हमारी निर्भरता बनी रहती है, बहुधा हमारे रिश्ते आवश्यकता, प्रयोजन या यूँ कहें कि एक आंतरिक दरिद्रता पर आधारित हो जाते हैं जिसे हम भूल-पूर्वक प्रेम समझ लेते हैं। स्वभाविक है कि यह मृग-तृष्णा सदा तो साथ नहीं दे सकती। कभी न कभी तो भ्रम टूटेगा ही……मरीचिका समाप्त और फिर वही सांय-सांय करता मीलों-मील फैला मारूस्थल और अकेलेपन और प्यास से भरी भटकन। हाँ इस सब के लिये हम दूसरे पर आक्षेप लगाने में नहीं चूकते। क्योंकि अपने सुख के लिये दूसरे पर निर्भर हैं तो दुःख का दायित्व भी तो उसी का हुआ न?

यह निरंतर हमारे साथ होता है……हमारे जीवन के असंख्य संबंधों में। अगर आपने भी कभी किसी रिश्ते में रुद्धता का अनुभव किया है तो आप जानते हैं मैं क्या कह रहा हूँ। संबंध जुड़ा नहीं किसी से कि लगे सामने वाले पर अधिकार जताने……उसके दिल-दिमाग़-समय-भावनाओं-मर्मों……उसके पूरे निजी व्यक्तित्व पर कब्ज़ा जमाने……उसे जी-जान से अपनी संपत्ति समझने……उसे किसी न किसी मूल्य पर आंकने……पूरा न उतरने पर बदलने की चेष्टा करने……और उसके समय या ध्यान में लेश-मात्र भी कमी होने पर स्वयं को उपेक्षित अथवा प्रेम से वंचित समझने।

फिर देखिये मन की चपलता और उसके हास्यासपद तरीके: चिड़चिड़ाहट, उदासीनता, मानसिक लचरता…एक झूठी विरक्ति।

क्या हम सभी कहीं न कहीं इसी अथक प्रयास में नहीं कि कभी, कहीं कोई ऐसा मिल जाये जो मित्रता व प्रेम की चोटी हो? कितने ही द्वारों पर हम खटखटा चुके हैं, कितनी बार आवाज़ दे चुके हैं। बार-बार अपने जैसे ही कुछ और लोग मिल जाते हैं। वे सब भी किसी न किसी का दर खटखटा रहे हैं। दोनों दल खाली हाथ, किसी दूसरे की आँखों में अपने जीवन की परिपूर्णता ढूँढते हुए, किसी दूसरे से अपनी तृप्ती की आस लगाये…एक ऐसे प्रेम की खोज करते जिस पर केवल और केवल अपना एकाधिकार हो, इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ कि वास्तविक प्रेम केवल एक दूसरे के साथ सम्मिलित हो जाने में है, न कि किसी पर युद्ध में जीती गयी वस्तु की तरह अधिकार जताने में। प्रेम स्वाधीनता चाहता है……आपकी भी और उनकी भी। स्वाधीनता में किया गया चुनाव, स्वाधीनता से किया गया प्रेम ही मान्य है। अपनी स्वतंत्रता में अगर कोई आप के साथ है, उसी साथ का कुछ अर्थ है और उसी स्वतंत्रता में अगर आप किसी का चुनाव नहीं हैं तो इस के लिये वह उत्तरदायी नहीं हो सकता। अगर आप उसे उत्तरदायी मानते हैं तो फिर उसके स्वतंत्र होने का क्या अर्थ? और जब स्वतंत्र प्रेम नहीं तो फिर वही घुटन और सीलन भरी ज़िंदगी।

11.15 पूर्वाह्न

माँ का चेहरा फिर आँखो के आगे आ गया। वह मेरे जीवन में स्वतंत्रता का स्रोत हैं। मैं कुछ भी करूँ, कहीं भी जाऊँ, किसी से मेरे संबंध टूटें या जुड़ें……वह सदा हैं……सदा वहीं मिल जाती हैं……घर के द्वार पर मेरी प्रतीक्षा करती हुयी। ऐसा लगता है, जैसे अब तक उन्होंने ही मुझ से प्रेम किया है। सोच और कर्म में विशाल अंतर के बावजूद उनका यही प्रेम मुझे घर लौटा ले जाता है……बार-बार……हर बार……लगातार।

उनका प्रेम स्वतंत्र है। वह इस बात पर निर्भर नही है कि मेरा चरित्र, मेरा व्यवहार कैसा है। मेरा चरित्र और व्यवहार मेरी समस्या है। उनका मेरे प्रति प्रेम इस बात से प्रभावित नहीं होता। वह सदा एक मासूम, कोमल, पौष्टिक निर्झर की तरह बहता रहता है……आश्चर्यजनक रूप से। सोच कर ग्लानि होती है कभी-कभी।

11.52 पूर्वाह्न

आज एहसास हो रहा है……समझ में भी आ रहा है यह सब। बहुत समय और भटकन के बाद अपनी एकमात्र सच्ची सखी की पहचान हुई मुझे। धन्यवाद माँ। आप जब नहीं रहेंगी तो आपकी बहुत याद आयेगी।