Saturday, September 22, 2007

अतिथि: एक लघु कथा



मैं और सुमित किशोरावस्था से ही अच्छे मित्र और बाद में एक ही व्यापार में साझीदार रहे हैं। जहां तक मैं सुमित को जानता हूं वह एक महत्वाकांक्षी तथा गतिशील व्यक्ति है और भावनाओं का उसके जीवन में कोई विशेष स्थान नहीं। पिछले वर्ष जब मैं अपने अन्य व्यापारी मित्रों से मिलने विदेश गया तो सुमित ने भी मेरे साथ भारत आने की तैयारी कर ली क्यों कि प्रतिवर्ष औपचारिकतावश ही सही वह अपने परिवार से मिलने भारत आता ही था।

हमें भारत आये दस दिन हो चुके थे और पांच दिनों बाद वह विदेश जाने वाला था, इस लिये मैं उस से मिलने उस के घर जा पहुंचा। अभी मैं ड्राइंग रूम में बैठा ही था कि मुझे सुमित, उसकी पत्नी तथा छोटी बच्ची नेहा के स्वर सुनाई दिये जो कि वार्षिक आयोजन में सम्मिलित किये जाने वाले अतिथियों की बनाई जाने वाली सूची के विषय में बात कर रहे थे। तभी उसकी पुत्री का स्पष्ट स्वर सुनाई दिया, “पापा, अतिथियों की सूची में आप एक नाम लिखना तो भूल ही गये – सुमित सहगल का। मैने अपने सभी मित्रों को इस नाम के विषय में बता कर कहा है कि यह हमारे विशेष अतिथि हैं।“

भोलेपन में कही उसकी यह बात सुन मैं आश्चर्यचकित रह गया और सोचने लगा कि छोटी बच्ची के इस सरल कथन से सुमित सम्भवतः जीवन में आपसी संबंधों के महत्व को जानने समझने लगे और मन की दूरियाँ सिमट कर भावनात्मक स्तर पर मुखर हो उठें।

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