Wednesday, December 19, 2007

हर्षवर्धन जी: यह रही रपट



हर्षवर्धन जी,

बस यात्रा में मिले सज्जन से सीख ले कर फ़ोन कर डाला उन परिचित महोदय को, जिन से कुछ दिनों से वार्तलाप की कड़ी टूट सी गयी थी। कुछ क्षण अपने आप को ताने सुनने के लिये तैयार किया, फिर नंबर मिलाया। रिंग जा रही थी। धड़कन बढ़ रही थी।

फिर उधर से आवाज़ आयी, "हेलो"

मैने भी जवाब दिया, " हेलो, जय श्री राम"

"ओहो, बड़े आदमी का फ़ोन है!!!"

चूँकि ऐसे ही किसी कटाक्ष का अंदेशा था, मैने सुना अनसुना कर दिया और पूछा,

"कैसे हैं भाई साहब?"

"अरे, क्या बतायें, कुछ दिन से तबियत ठीक नहीं थी। दफ़्तर से दो हफ़्ते की छुट्टी पर हैं"

"अरे क्या हुआ?"

"कुछ palpitations हो गये थे, सो अस्पताल वालों ने एक दिन observation में रखा, ई.सी.जी. निकाली, कुछ ब्लड टेस्ट किये। रिसल्ट तो प्राय: नार्मल ही हैं। कुछ दवा दी है पर भइये पान-पराग बंद है, पूल खेलने भी नहीं जा रहा, रम भी बंद……", वह ऐसे अंदाज़ में बोल रहे थे मानो किसी ट्रेन को लंबी प्रतीक्षा के बाद हरी झंडी मिली हो। बोलने का अंदाज़ ऐसा, मानो कह रहे हों, "देखा इतना सब कुछ हो गया और तुम्हें कुछ सुध ही नहीं"

मैं सुनता रहा चुप-चाप। मन में मिश्रित भाव थे। कुछ ग्लानि थी कि आवश्यकता पड़ने पर काम नहीं आ सका। कुछ रोष था कि ज़रूरत के समय मुझे बताया भी नहीं जनाब ने। उनके जीवन में अपने महत्व का एहसास हो गया।

कुछ और औपचारिकताओं के पश्चात फ़ोन रख दिया। कई विचार तीव्रता से एक दूसरे से भिड़ रहे थे और कुछ स्पष्ट रूप से समझ नहीं आ रहा था। कुछ मिनट बाद जब मानसिक उथल-पुथल कम हुई तो फिर अपने अंदर देखा।

फ़ोन इसलिये किया था कि निर्भरता व अहं से अधिक मूल्यवान मित्रता है। पर यह क्या? भीतर देखा तो पाया कि अहं और बलशाली हो, मुझी पर हँस रहा है। मैं आप को धोखा दे सकता हूँ, शायद स्वयं भी इस बात से मुँह मोड़ सकता हूँ कि ऐसा नहीं हुआ पर सत्य यही है कि जब अपने अंदर झांका तो पाया कि मन अपने आप को शाबाश कह रहा है। कह रहा है, "तुम बड़े महान हो, तुमने पहल की, अपने अहं को दरकिनार कर कितने सच्चे मित्र होने का प्रमाण दिया"

अब यह क्या है? अहं ही तो पिछले द्वार से फिर आ गया, नये रूप में छलने। मैं अगर अपने आप को दूसरे की तुलना में अधिक नम्र, अधिक विनीत, अधिक उदार और क्षमा-दाता समझने लगा, तो फिर उसी चक्कर में फंस गया।

वस्तुत: तुलना करना ही अहं के होने का प्रमाण है। अहं……मेरे "मैं" की भावना ही तो मुझे अलग करती है बाहरी जगत से। यहां मैं समाप्त और यहां दूसरा आरंभ। तुलना ही तो है यह। छोटा बड़े से अलग, काला सफ़ेद से, गर्मी सर्दी से, मोटा पतले से, बुद्धिमान गंवार से, सुंदर कुरूप से। हर जगह, हर पहलू में जीवन हिस्सों बट गया है इस "मैं" के कारण। और हम सब विद्यालय से सीखते आये हैं, "United we stand, Divided we fall"???

पर जानते हैं हर्षवर्धन जी, इस चक्कर में फंसने से बच गया इस बार। कैसे? वो ऐसे कि इस सारी प्रक्रिया को मैने ध्यानपूर्वक देखा और मन जो शाबाशी दे रहा था, उसे अस्वीकर कर दिया। केवल हंस दिया और इस जाल से मुक्त रहा। यह जाना कि मनुष्य अहं और उससे जुड़ी हुई तमाम विपदाओं का शिकार केवल अंजाने में ही हो सकता है। सचेत होने पर यह सारी समस्याएं झूठी हो जाती हैं क्योंकि अहं का भ्रम टूटते ही यथार्थ का अनुभव होता है।

अगर मन की शाबाशी स्वीकार कर लेता तो यह आशा बंध जाती कि अब मेरे "बड़प्पन" के एवज़ में परिचित महोदय कम से कम आभार तो व्यक्त करेंगे……मेरी पहल के लिये मुझे प्रशस्ती-पत्र तो देंगे। लेकिन अगर ऐसा न हुआ तो फिर वही चक्र्व्यूह?!

लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। इस प्रसंग का यथार्थ केवल इतना है कि हृदय से आवाज़ आयी: फ़ोन करो। और मैने कर लिया, हाल-चाल जान लिया। उन्होने तो मुझसे ऐसा करने को नहीं कहा था जो कोई आभार व्यक्त करने की आवशयकता हो उन्हें।

खैर, परिचित महोदय ने अपनी भड़ास निकाल ली। कह रहे थे एक रिपोर्ट कुछ देर बाद मिलने वाली है। उसका नतीजा बताने के लिये उनका फ़ोन नहीं आया। कोई बात नहीं। अंदर से आवाज़ आयी तो मैं ही पूछ लूंगा, "भाई साहब, राम-राम, केम छो?"

Tuesday, December 18, 2007

मारल आफ़ दि स्टोरी



कल बस में यात्रा करते हुए, पड़ोसी सज्जन से बात-चीत आरंभ हो गयी। बातों-बातों में वह अपने पूरे परिवार का उल्लेख कर गये। पत्नी ने कई वर्ष पूर्व कहीं और गृहस्थी जमा ली थी। दो बेटे हैं पर विदेश में पढ़ाई के बाद वहीं के हो कर रह गये। बड़ा मकान था पर अकेले संभालना कठिन था। सो बेच कर छोटा फ़्लैट ले लिया है। समय काटने के लिये नगर-पुस्तकालय में किताबों की कैटालौगिंग में सहायता कर देते हैं।

40-45 मिनट बाद वे अपने स्टाप पर उतर गये और मेरे मस्तिष्क में कई विचार कौंधने लगे।

आगंतुक बहुत बार परिचितों की अपेक्षा अधिक मनोहर होते हैं। ऐसा क्यूँ? शायद इसलिये कि किसी अजनबी के साथ जुड़ने के समस्त विकल्प खुले होते हैं। और आप जिस भी तार से जुड़ जायें, उस रिश्ते को फलने-फूलने का अधिक अवसर मिलता है क्यूँकि उस रिश्ते में कोई निश्चित role expectation नहीं होता। साधरणतः अगर हम पति, पत्नी, पिता, माँ, बेटा, बेटी, बहन, भाई होते हैं………और केवल वही होते हैं………उस रिश्ते की परिधि में। परंतु किसी अपरिचित के साथ तो कोई रिश्ता नहीं होता, कोई सीमा नहीं। किसी प्रकार की भूमिका से बंधे नहीं हैं आप। आप से किसी प्रकार की कोई आशा नहीं। न आप किसी पर निर्भर, न कोई आप पर। है न एक उन्मुक्त रिश्ता? केवल एक सरल वार्तालाप, विचारों का सादा आदान-प्रदान………बिना किसी झिझक या भय के। और फिर एक सीधी-सादी अलविदा, बिना दोबारा मिलने की आकांक्षा के।

शायद ऐसा इस लिये संभव है क्यूँकि यह रिश्ता जुदा होने के अधार पर ही तो जुड़ता है, बनिस्बत हमारे जीवन के दूसरे जटिल रिश्तों के, जिन की कोई न कोई मांग होती है या फिर विलग हो जाने का भय।

*

बस पुन: गति पकड़ चुकी थी। वह सज्जन अब तक आँखों से ओझल हो चुके थे। शेष बचा था तो बस उस वार्तालाप से मिला एक सीधा, साधारण सबक: अगर हर रिश्ते की नींव अहं की अपेक्षा प्रेम पर, निर्भरता की अपेक्षा बांटने पर, कल बिछड़ जाने के काल्पनिक भय की अपेक्षा आज के सानिध्ध्य और मैत्री पर हो तो शायद जीवन अधिक आसान और मनोहारी हो जाय।

कुछ दिनों से एक परिचित से कुछ मन-मुटाव हो गया है। उन्हें आशा है कि मैं फ़ोन करूँ और मेरी ज़िद है कि वो पहले फ़ोन करें। अब दोनो विदेश में रहते हैं और एक-दूसरे से अलग हो जाने के विचार से कुछ व्याकुल भी हैं कि ज़रूरत पड़ने पर इस अंजान देश में कौन काम आयेगा।

अब सबक मिल ही गया है तो यह सब भुला कर काल मिला लूँ। वह एक अच्छे व्यक्ति हैं और मैं भी ठीक-ठाक ही हूँ। केवल इतना कारण ही पर्याप्त है। है न?

Monday, December 17, 2007

कुंजी



मन अत्यंत शक्तिशाली है।


इसकी उड़ान से ऊँचा उड़ना शायद संभव न हो और शायद इसकी गहराई तक पहुंचना बहुत जटिल। असीम शक्ति से परिपूर्ण यह मन अनेकानेक कार्य करना चाहता है……भागते रहना चाहता है……भोगते रहना चाहता है। परंतु यह तन एवं सामाजिक परिवेश……इनकी अपनी सीमायें हैं……अपने दायरे हैं।


मन तो अनन्त-काल तक 'गुलाब-जामुन' के स्वाद का अनुभव करना चाह सकता है पर तन साथ नहीं देगा। हां, अधिक मीठा अस्पताल का रास्ता अवश्य दिखा देगा।


मन का क्या है, वह तो चाहता है भागना……हर दिशा में, हर गली में……नाचना, गाना चाहता है……बारिश में भीगना चाहता है……बेबाक……बेलगाम। पर आचरण-संहिता शायद अनुमति न दे।


यही बेमेल मुझे इस बात का एहसास करवाता है मानो मैं अपनी किन्हीं क्षमताओं को पूरी तरह यथार्थ में परिवर्तित नहीं कर पाया अब तक। एसा प्रतीत होता है जैसे अभी कुछ और करना शेष है। और जो भी शेष है, वही अपूरित कर्म है। उसे ही पूरा करने फिर अवतरित होना होगा।


पर तब क्या यह असंतुलन समाप्त हो जायेगा? शायद नहीं। तो फिर? कदाचित तन और मन में से किसी एक को छोड़ना होगा……अभी के अभी।


तन को छोड़ दूँ तो संभवत: छुटकारा नहीं है क्यूंकि मन अधिक शक्तिशाली है……नया शरीर धारण कर लेगा……एसा बताया गया है।


तो फिर मन का परित्याग? पर कैसे? दमन से? प्रयत्न कर के देख चुका हूँ। व्यर्थ है। दमन से और अधिक बलशाली हो जाता है मन। फिर?


मन का दमन संभव नहीं है। केवल तीव्रता से आते-जाते विचारों के प्रति सचेत रहा जा सकता है, उन्हें बलपूर्वक दबाया नहीं जा सकता। सचेत रहने पर बहुत सारे विचार हास्यासपद प्रतीत होने लगते हैं और फलस्वरूप लुप्त हो जाते है……बिना प्रयत्न के। पहले एसा नहीं लगता था पर एक दिन शीशे में अपना ही क्रोध से भरा चेहरा देख कर हंस पड़ा: एकदम लाल-सुर्ख़……लंगूर जैसा लग रहा था। तब पता चला कि हर बार बाह्य शीशे की आवश्यकता नहीं है। किसी विचार अथवा भावना के प्रति मात्र आंतरिक रूप से सचेत हो जाना ही पर्याप्त है।


काफ़ी सुनहरी कुंजी है यह। पर मन चंचल है। बार-बार सबसे आसान विधी ही भूलता है और कठिन लक्ष्य के पीछे ही भागता है। किसी लक्ष्य की कठिनता ही अहं को संतुष्ट करती है और दौड़ जारी रहती है।


पर अब जब कुंजी का स्मरण हो आया है, तो चलता हूँ। शायद ताला खुल जाय।