6.15 पूर्वाह्न
एक और रात धौंकनी की आवाज़ सुनते-सुनते बीत चुकी है। साँस ठीक से नहीं आती। अंतिम श्वास आने वाली हो, ऐसा भी कोई आभास नहीं होता। अधलेटी अवस्था में पड़े-पड़े मेरा ध्यान एक बार फिर अपने मध्यपट की ओर चला गया है जो साँस की तीव्रता के साथ तेज़ी से गतिशील है। फेफड़े भी जल्द से जल्द, अधिक से अधिक धूल-पराग मिश्रित वायु अंदर खींचने के प्रयत्न में तल्लीन हैं। बीमारी में जैसा कदाचित सभी के साथ होता होगा, आंखे बंद करने पर माँ का छाया-चित्र मेरे सम्मुख आ जाता है। एक झरने की भांति उनकी युवावस्था, मध्य आयु और फिर वर्ष दर वर्ष हाथों पर……आँखों के किनारों पर……और धीरे-धीरे पूरे चेहरे पर आ जाने वाली कई झुर्रियों की अनेकों छवियां उमड़-उमड़ कर सामने आने लगती हैं।
6.30 पूर्वाह्न
अलार्म की ध्वनी से तन्मयता भंग हुई। अपना इनहेलर टटोल कर, संकीर्ण श्वास-नलिकाओं में साल्ब्युटामोल धकेलते हुए मैं फ़र्श पर चप्पल खोजता हूँ। बेटी को उठाने का समय हो गया है। उसे नहला-धुला कर, ठंडा दूध पिला कर, तैयार कर स्कूल भेजना है। तत्पश्चात दाढ़ी बना कर, नहा कर धुँधली धूप में निकलना है एक और दिन का सामना करने।
7.25 पूर्वाह्न
स्कूल-वैन अभी-अभी गयी है। कंधे पर स्कूल-बैग लटकाये, हाथ में पानी की बाटल लिये, अन्यमनस्क रूप से हाथ हिला कर, बाय-बाय बोल कर चली गयी बिटिया और मुझे फिर ABBA ग्रुप का गीत, “Slipping through my Fingers” याद हो आया।
हवा……आसमान……आज भी पिछले कई दिनों की तरह ही है……धूल के महीन कणों से प्रचुर…ऐसे कण, जो न केवल आपके फ़र्नीचर पर बल्कि आप के स्वभाव, आप के मन में भी बस जाते हैं और सब कुछ अस्पष्ट सा प्रतीत होने लगता है।
9.35 पूर्वाह्न
बिजली चली गयी है……फिर से……और पसीने की एक बूँद टोस्ट पर गिरने की ज़िद कर रही है। इस लिये जल्दी-जल्दी चाय नाश्ता समाप्त कर, माथे और कान के पीछे से पसीने को पोंछ कर कुछ देर आराम से बैठने की चेष्टा कर रहा हूँ। परंतु सड़क पर यातायात के बढ़ने से पहले ही मानसिक आवागमन आरंभ हो चला है और हाथ स्वत: ही डायरी-पेन की ओर बढ़ गये हैं।
एक बार फिर माँ की आकृति मन में कौंधने लगी है। उनकी प्रेम व ममता भरी दृष्टी के साये में बाकी सब कुछ बहुत क्षुद्र सा हो गया है। बचपन में जब कभी बीमार पड़ता, तो माँ रात भर सरहाने बैठी रहतीं। आज भी मुझे देख कर उनकी आँखों में वही चिर-परिचित शर्त-रहित मुस्कुराहट है जो मेरी अमीरी-ग़रीबी, प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा या मेरे जीवन के जुड़ते-टूटते रिश्तों पर निर्भर नहीं है। माँ अपनी संतान को हर रूप में, हर परिस्थिति में स्वीकार करने को, अपना कहने को तत्पर रहती है। मैं चाहे कुछ भी हूँ……कुछ भी बन जाऊँ……अच्छा……बुरा, माँ का पुत्र सदा ही रहूँगा।
10.35 पूर्वाह्न
नम आँखों से घड़ी की ओर देखते ही एहसास हुआ कि काम पर जाने का समय हो गया है। परंतु कहीं जाने या किसी से मिलने की इच्छा नहीं है। चुनाचे पेन हाथ में थामे पुन: अपने अंदर झांकना प्रारंभ कर दिया। विभिन्न लोगों की आवाज़ें सुनाई पड़ रही हैं और वे सब अपने-अपने तरीके से मेरा समय चाहते हैं……अपने प्रति मेरी पूर्ण उपलब्धता के लिये आतुर। और मैं सोच रहा हूँ: कितने बेचारे हैं सब। अपने पास कुछ बांटने लायक न होते हुए भी मेरी ओर से पूरे अविभाजित ध्यान की आकांक्षा है उन्हे। मैं स्वयं भी तो कुछ अलग नहीं हूँ। अक्सर हम सभी का जीवन इसी बात पर आधारित होता है कि हम कितना पा सकते हैं……कुछ पाने के लिये कुछ देना आवश्यक है……तो फिर प्रयत्न प्राय: यही है कि कम से कम दे कर अधिक से अधिक कैसे पाया जा सकता है। चूंकि किसी से कुछ पाने के लिये उस पर हमारी निर्भरता बनी रहती है, बहुधा हमारे रिश्ते आवश्यकता, प्रयोजन या यूँ कहें कि एक आंतरिक दरिद्रता पर आधारित हो जाते हैं जिसे हम भूल-पूर्वक प्रेम समझ लेते हैं। स्वभाविक है कि यह मृग-तृष्णा सदा तो साथ नहीं दे सकती। कभी न कभी तो भ्रम टूटेगा ही……मरीचिका समाप्त और फिर वही सांय-सांय करता मीलों-मील फैला मारूस्थल और अकेलेपन और प्यास से भरी भटकन। हाँ इस सब के लिये हम दूसरे पर आक्षेप लगाने में नहीं चूकते। क्योंकि अपने सुख के लिये दूसरे पर निर्भर हैं तो दुःख का दायित्व भी तो उसी का हुआ न?
यह निरंतर हमारे साथ होता है……हमारे जीवन के असंख्य संबंधों में। अगर आपने भी कभी किसी रिश्ते में रुद्धता का अनुभव किया है तो आप जानते हैं मैं क्या कह रहा हूँ। संबंध जुड़ा नहीं किसी से कि लगे सामने वाले पर अधिकार जताने……उसके दिल-दिमाग़-समय-भावनाओं-मर्मों……उसके पूरे निजी व्यक्तित्व पर कब्ज़ा जमाने……उसे जी-जान से अपनी संपत्ति समझने……उसे किसी न किसी मूल्य पर आंकने……पूरा न उतरने पर बदलने की चेष्टा करने……और उसके समय या ध्यान में लेश-मात्र भी कमी होने पर स्वयं को उपेक्षित अथवा प्रेम से वंचित समझने।
फिर देखिये मन की चपलता और उसके हास्यासपद तरीके: चिड़चिड़ाहट, उदासीनता, मानसिक लचरता…एक झूठी विरक्ति।
क्या हम सभी कहीं न कहीं इसी अथक प्रयास में नहीं कि कभी, कहीं कोई ऐसा मिल जाये जो मित्रता व प्रेम की चोटी हो? कितने ही द्वारों पर हम खटखटा चुके हैं, कितनी बार आवाज़ दे चुके हैं। बार-बार अपने जैसे ही कुछ और लोग मिल जाते हैं। वे सब भी किसी न किसी का दर खटखटा रहे हैं। दोनों दल खाली हाथ, किसी दूसरे की आँखों में अपने जीवन की परिपूर्णता ढूँढते हुए, किसी दूसरे से अपनी तृप्ती की आस लगाये…एक ऐसे प्रेम की खोज करते जिस पर केवल और केवल अपना एकाधिकार हो, इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ कि वास्तविक प्रेम केवल एक दूसरे के साथ सम्मिलित हो जाने में है, न कि किसी पर युद्ध में जीती गयी वस्तु की तरह अधिकार जताने में। प्रेम स्वाधीनता चाहता है……आपकी भी और उनकी भी। स्वाधीनता में किया गया चुनाव, स्वाधीनता से किया गया प्रेम ही मान्य है। अपनी स्वतंत्रता में अगर कोई आप के साथ है, उसी साथ का कुछ अर्थ है और उसी स्वतंत्रता में अगर आप किसी का चुनाव नहीं हैं तो इस के लिये वह उत्तरदायी नहीं हो सकता। अगर आप उसे उत्तरदायी मानते हैं तो फिर उसके स्वतंत्र होने का क्या अर्थ? और जब स्वतंत्र प्रेम नहीं तो फिर वही घुटन और सीलन भरी ज़िंदगी।
11.15 पूर्वाह्न
माँ का चेहरा फिर आँखो के आगे आ गया। वह मेरे जीवन में स्वतंत्रता का स्रोत हैं। मैं कुछ भी करूँ, कहीं भी जाऊँ, किसी से मेरे संबंध टूटें या जुड़ें……वह सदा हैं……सदा वहीं मिल जाती हैं……घर के द्वार पर मेरी प्रतीक्षा करती हुयी। ऐसा लगता है, जैसे अब तक उन्होंने ही मुझ से प्रेम किया है। सोच और कर्म में विशाल अंतर के बावजूद उनका यही प्रेम मुझे घर लौटा ले जाता है……बार-बार……हर बार……लगातार।
उनका प्रेम स्वतंत्र है। वह इस बात पर निर्भर नही है कि मेरा चरित्र, मेरा व्यवहार कैसा है। मेरा चरित्र और व्यवहार मेरी समस्या है। उनका मेरे प्रति प्रेम इस बात से प्रभावित नहीं होता। वह सदा एक मासूम, कोमल, पौष्टिक निर्झर की तरह बहता रहता है……आश्चर्यजनक रूप से। सोच कर ग्लानि होती है कभी-कभी।
11.52 पूर्वाह्न
आज एहसास हो रहा है……समझ में भी आ रहा है यह सब। बहुत समय और भटकन के बाद अपनी एकमात्र सच्ची सखी की पहचान हुई मुझे। धन्यवाद माँ। आप जब नहीं रहेंगी तो आपकी बहुत याद आयेगी।
Wednesday, September 19, 2007
मेरी सर्वोच्च सखी
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3 comments:
पढ़ने के बाद अपने अंदर बहुत कुछ गुन ने पे मजबूर हो गयी…।लेख मे प्रवाह है……बहुत खूब
ध्न्यवाद पारुल जी।
’मां की कलम से ’ ’प्रत्यक्ष दर्शी ’ तक पहुंचे .यह पोस्ट पढ कर मन थोडा भारी हो गया .मां हूं ना बेटों की .कल वे भी घर से बाहर होगें . पर मन को कही बहुत भीतर एक टुकड़ा सन्तोश था ,हम तो तब्भी होगे ना उन्के मन मे . स्वार्थ है क्या यह.
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