Monday, October 8, 2007

एक निद्राभाव रात्रि का संस्मरण



जून 21, 2000

5.40 अपराह्न

……बहुत लोग उस cyber-cafe में कम दरों के कारण जाते हैं। लेकिन मुझे उस जगह का स्थानात्मक मूल्य वहां ले जाता है। कुछ दूरी पर ही रेल-लाइन है। किसी धड़धड़ाती हुई गाड़ी के गुज़रने पर जब आस-पास सब कुछ, कुछ पल के लिये तीव्र गति के प्रभाव से कंपित हो जाता है, उसी थरथराहट का अनुभव मेरे लिये उस जगह का मूल्य है।

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जून 22, 2000

3.20 पूर्वाह्न

मैं श्वेत, उज्ज्वल पन्ने पर लिख रहा हूँ और आज भी बचपन की तरह वाक्यों को सीधा रखने की चेष्टा में हूँ। उन पर छोड़ दूँ तो सब के सब आकाशगामी हो जाएं।

एक और नींद-रहित रात कुछ ही पहर में समाप्त होने को है। मैं अकारण ही विचलित सा यहां-वहां, इस कमरे में, उस कमरे में, बाहर बरामदे में, उपर छत पर, सब जगह घूम-फिर चुका हूँ।

संगीत भी पूरी रात रुचिकर नहीं लगा।

चांद को भी बहुत देर देखा। वह भी अब धीरे-धीरे पश्चिम की ओर सरकते हुए, धुंधले ग्रीष्मकालीन आकाश के चतुर्य भाग तक जा पहुंचा है।

पूरी रात मंद-मंद हवा के झोंके, एक अनोखी सी अलौकिकता लिये, बहुत प्यारे लगते रहे।

एक घंटे पहले मैं चौकीदर से बातें कर रहा था। मुझे रात्रि की प्रौढ़ावस्था में देख कर पहले उसका संदेह और पहचान आने पर आश्चर्य-मिश्रित प्रसन्नता मुझसे छिपी नहीं रही। कुछ देर हम बातें करते रहे। वह मुझे नेपाल में रह रहे अपने परिवार के बारे में बताता रहा। बातों-बातों में मैने भी उसकी बीड़ी से दो कश ले लिये और वह हर्षपूर्वक कल रात मिलने का वचन दे, सीटी बजाता, लाठी ठोकता मोहल्ले के शेष भाग की निगरानी करने चल पड़ा। अंदर आ कर एक-दो मीठे बिस्किट खाये, तब जा कर बीड़ी का कसैला स्वाद गया :)

अब फिर वही बोरियत थी। क्या किया जाय। TV में भी कुछ देखने लायक नहीं लगा। वही कल शाम वाले समाचार थे। धारावहिक नाटक मुझे भाते नहीं। MTV पर अर्ध-नग्न महिलायें थीं। उन्हें देख कर एहसास हुआ कि प्रकृति ने भले ही नर को कितना ही लैंगिक रूझान क्यों न दिया हो, सुबह होने से कुछ देर पहले, जब रात अधिकाधिक सघन हो, अंधकार बिल्कुल वास्तविक हो और हर ओर एकांत का पवित्र नि:शब्द गुंजन हो, मन गौण प्रेरणाओं के प्रति कम संवेदन्शील हो जाता है।

तीन बजे, पुस्तकों की शेल्फ़ में माथापच्ची करने लगा और सहसा एक बहुत पुरानी पुस्तक हाथ लग गयी। 1958 में UNESCO द्वारा प्रकाशित की गयी थी और शीर्षक था, "All Men are Brothers"। खोल कर देखा तो गाँधी जी के जीवन का सारांश और उनके विचार थे। पन्ने पलटते-पलटते, एक पैराग्राफ़ पर ध्यान रुक गया। ऐसा लगा मानो मेरे ही अंतर की आवाज़, लिखित रूप में मेरे सामने आ गयी हो। ऐसा संभव है कि अनुवाद करने से उनके लेखन की मौलिकता से समझौता हो जाय। इस लिये, उस पैराग्राफ़ को उसके मूल रूप में ही यहां उद्धृत कर रहा हूँ:

"I am not at all concerned with appearing to be consistent. In my pursuit after truth, I have discarded many ideas and learnt many new things. Older as I am in age, I have no feeling that I have ceased to grow inwardly or that my growth will stop with the dissolution of the flesh. What I am concerned with is my readiness to obey the call of truth…from moment to moment.

At the time of writing, I never think of what I have said before. My aim is not to be consistent with my previous statements on a given question, but to be consistent with truth, as it may present itself to me at a given moment. The result has been that I have grown from truth to truth….and what's more, whenever I have been obliged to compare my writing of even fifty years ago with latest, I have discovered no inconsistency between the two. But friends who observe inconsistency will do well to take the meaning which my latest writing may yield, unless of course, they prefer the old. But before making the choice, they should try to see if there is not an underlying and abiding consistency between the two seeming inconsistencies."

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3.50 पूर्वाह्न

अब आंखें थकने लगीं हैं और मन भी एकाग्र नहीं रहा……जैसे केंद्र खो गया हो। पहले कयी बार की तरह अपने-आप से ही बात करने लगा हूँ और क्या पता बाद में स्वयं को ही स्वप्न में देखूँ……बेड पर औंधे पड़े हुए, बिना धारियों वाले श्वेत कागज़ों पर वाक्यों को सीधा रखने के संघर्ष में तल्लीन और खुले पन्ने पँखे के घुमावदार वायु प्रवाह में उड़-उड़ जाते होंगे।

4.00 पूर्वाह्न

कमरे में बहुत सीलन व गर्मी हो गयी है। अब लिखना बंद कर बाहर लान में जाऊंगा और अगर मच्छर मुझे खदेड़ने में समर्थ रहे तो एक बार फिर सीढ़ियां फांद कर छत पर चला जाऊंगा……डूबते चाँद के कुछ अंतिम पल शेष बचे हैं, उन पलों में उसके साथ रहने के लिये

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