Wednesday, December 19, 2007

हर्षवर्धन जी: यह रही रपट



हर्षवर्धन जी,

बस यात्रा में मिले सज्जन से सीख ले कर फ़ोन कर डाला उन परिचित महोदय को, जिन से कुछ दिनों से वार्तलाप की कड़ी टूट सी गयी थी। कुछ क्षण अपने आप को ताने सुनने के लिये तैयार किया, फिर नंबर मिलाया। रिंग जा रही थी। धड़कन बढ़ रही थी।

फिर उधर से आवाज़ आयी, "हेलो"

मैने भी जवाब दिया, " हेलो, जय श्री राम"

"ओहो, बड़े आदमी का फ़ोन है!!!"

चूँकि ऐसे ही किसी कटाक्ष का अंदेशा था, मैने सुना अनसुना कर दिया और पूछा,

"कैसे हैं भाई साहब?"

"अरे, क्या बतायें, कुछ दिन से तबियत ठीक नहीं थी। दफ़्तर से दो हफ़्ते की छुट्टी पर हैं"

"अरे क्या हुआ?"

"कुछ palpitations हो गये थे, सो अस्पताल वालों ने एक दिन observation में रखा, ई.सी.जी. निकाली, कुछ ब्लड टेस्ट किये। रिसल्ट तो प्राय: नार्मल ही हैं। कुछ दवा दी है पर भइये पान-पराग बंद है, पूल खेलने भी नहीं जा रहा, रम भी बंद……", वह ऐसे अंदाज़ में बोल रहे थे मानो किसी ट्रेन को लंबी प्रतीक्षा के बाद हरी झंडी मिली हो। बोलने का अंदाज़ ऐसा, मानो कह रहे हों, "देखा इतना सब कुछ हो गया और तुम्हें कुछ सुध ही नहीं"

मैं सुनता रहा चुप-चाप। मन में मिश्रित भाव थे। कुछ ग्लानि थी कि आवश्यकता पड़ने पर काम नहीं आ सका। कुछ रोष था कि ज़रूरत के समय मुझे बताया भी नहीं जनाब ने। उनके जीवन में अपने महत्व का एहसास हो गया।

कुछ और औपचारिकताओं के पश्चात फ़ोन रख दिया। कई विचार तीव्रता से एक दूसरे से भिड़ रहे थे और कुछ स्पष्ट रूप से समझ नहीं आ रहा था। कुछ मिनट बाद जब मानसिक उथल-पुथल कम हुई तो फिर अपने अंदर देखा।

फ़ोन इसलिये किया था कि निर्भरता व अहं से अधिक मूल्यवान मित्रता है। पर यह क्या? भीतर देखा तो पाया कि अहं और बलशाली हो, मुझी पर हँस रहा है। मैं आप को धोखा दे सकता हूँ, शायद स्वयं भी इस बात से मुँह मोड़ सकता हूँ कि ऐसा नहीं हुआ पर सत्य यही है कि जब अपने अंदर झांका तो पाया कि मन अपने आप को शाबाश कह रहा है। कह रहा है, "तुम बड़े महान हो, तुमने पहल की, अपने अहं को दरकिनार कर कितने सच्चे मित्र होने का प्रमाण दिया"

अब यह क्या है? अहं ही तो पिछले द्वार से फिर आ गया, नये रूप में छलने। मैं अगर अपने आप को दूसरे की तुलना में अधिक नम्र, अधिक विनीत, अधिक उदार और क्षमा-दाता समझने लगा, तो फिर उसी चक्कर में फंस गया।

वस्तुत: तुलना करना ही अहं के होने का प्रमाण है। अहं……मेरे "मैं" की भावना ही तो मुझे अलग करती है बाहरी जगत से। यहां मैं समाप्त और यहां दूसरा आरंभ। तुलना ही तो है यह। छोटा बड़े से अलग, काला सफ़ेद से, गर्मी सर्दी से, मोटा पतले से, बुद्धिमान गंवार से, सुंदर कुरूप से। हर जगह, हर पहलू में जीवन हिस्सों बट गया है इस "मैं" के कारण। और हम सब विद्यालय से सीखते आये हैं, "United we stand, Divided we fall"???

पर जानते हैं हर्षवर्धन जी, इस चक्कर में फंसने से बच गया इस बार। कैसे? वो ऐसे कि इस सारी प्रक्रिया को मैने ध्यानपूर्वक देखा और मन जो शाबाशी दे रहा था, उसे अस्वीकर कर दिया। केवल हंस दिया और इस जाल से मुक्त रहा। यह जाना कि मनुष्य अहं और उससे जुड़ी हुई तमाम विपदाओं का शिकार केवल अंजाने में ही हो सकता है। सचेत होने पर यह सारी समस्याएं झूठी हो जाती हैं क्योंकि अहं का भ्रम टूटते ही यथार्थ का अनुभव होता है।

अगर मन की शाबाशी स्वीकार कर लेता तो यह आशा बंध जाती कि अब मेरे "बड़प्पन" के एवज़ में परिचित महोदय कम से कम आभार तो व्यक्त करेंगे……मेरी पहल के लिये मुझे प्रशस्ती-पत्र तो देंगे। लेकिन अगर ऐसा न हुआ तो फिर वही चक्र्व्यूह?!

लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। इस प्रसंग का यथार्थ केवल इतना है कि हृदय से आवाज़ आयी: फ़ोन करो। और मैने कर लिया, हाल-चाल जान लिया। उन्होने तो मुझसे ऐसा करने को नहीं कहा था जो कोई आभार व्यक्त करने की आवशयकता हो उन्हें।

खैर, परिचित महोदय ने अपनी भड़ास निकाल ली। कह रहे थे एक रिपोर्ट कुछ देर बाद मिलने वाली है। उसका नतीजा बताने के लिये उनका फ़ोन नहीं आया। कोई बात नहीं। अंदर से आवाज़ आयी तो मैं ही पूछ लूंगा, "भाई साहब, राम-राम, केम छो?"

Tuesday, December 18, 2007

मारल आफ़ दि स्टोरी



कल बस में यात्रा करते हुए, पड़ोसी सज्जन से बात-चीत आरंभ हो गयी। बातों-बातों में वह अपने पूरे परिवार का उल्लेख कर गये। पत्नी ने कई वर्ष पूर्व कहीं और गृहस्थी जमा ली थी। दो बेटे हैं पर विदेश में पढ़ाई के बाद वहीं के हो कर रह गये। बड़ा मकान था पर अकेले संभालना कठिन था। सो बेच कर छोटा फ़्लैट ले लिया है। समय काटने के लिये नगर-पुस्तकालय में किताबों की कैटालौगिंग में सहायता कर देते हैं।

40-45 मिनट बाद वे अपने स्टाप पर उतर गये और मेरे मस्तिष्क में कई विचार कौंधने लगे।

आगंतुक बहुत बार परिचितों की अपेक्षा अधिक मनोहर होते हैं। ऐसा क्यूँ? शायद इसलिये कि किसी अजनबी के साथ जुड़ने के समस्त विकल्प खुले होते हैं। और आप जिस भी तार से जुड़ जायें, उस रिश्ते को फलने-फूलने का अधिक अवसर मिलता है क्यूँकि उस रिश्ते में कोई निश्चित role expectation नहीं होता। साधरणतः अगर हम पति, पत्नी, पिता, माँ, बेटा, बेटी, बहन, भाई होते हैं………और केवल वही होते हैं………उस रिश्ते की परिधि में। परंतु किसी अपरिचित के साथ तो कोई रिश्ता नहीं होता, कोई सीमा नहीं। किसी प्रकार की भूमिका से बंधे नहीं हैं आप। आप से किसी प्रकार की कोई आशा नहीं। न आप किसी पर निर्भर, न कोई आप पर। है न एक उन्मुक्त रिश्ता? केवल एक सरल वार्तालाप, विचारों का सादा आदान-प्रदान………बिना किसी झिझक या भय के। और फिर एक सीधी-सादी अलविदा, बिना दोबारा मिलने की आकांक्षा के।

शायद ऐसा इस लिये संभव है क्यूँकि यह रिश्ता जुदा होने के अधार पर ही तो जुड़ता है, बनिस्बत हमारे जीवन के दूसरे जटिल रिश्तों के, जिन की कोई न कोई मांग होती है या फिर विलग हो जाने का भय।

*

बस पुन: गति पकड़ चुकी थी। वह सज्जन अब तक आँखों से ओझल हो चुके थे। शेष बचा था तो बस उस वार्तालाप से मिला एक सीधा, साधारण सबक: अगर हर रिश्ते की नींव अहं की अपेक्षा प्रेम पर, निर्भरता की अपेक्षा बांटने पर, कल बिछड़ जाने के काल्पनिक भय की अपेक्षा आज के सानिध्ध्य और मैत्री पर हो तो शायद जीवन अधिक आसान और मनोहारी हो जाय।

कुछ दिनों से एक परिचित से कुछ मन-मुटाव हो गया है। उन्हें आशा है कि मैं फ़ोन करूँ और मेरी ज़िद है कि वो पहले फ़ोन करें। अब दोनो विदेश में रहते हैं और एक-दूसरे से अलग हो जाने के विचार से कुछ व्याकुल भी हैं कि ज़रूरत पड़ने पर इस अंजान देश में कौन काम आयेगा।

अब सबक मिल ही गया है तो यह सब भुला कर काल मिला लूँ। वह एक अच्छे व्यक्ति हैं और मैं भी ठीक-ठाक ही हूँ। केवल इतना कारण ही पर्याप्त है। है न?

Monday, December 17, 2007

कुंजी



मन अत्यंत शक्तिशाली है।


इसकी उड़ान से ऊँचा उड़ना शायद संभव न हो और शायद इसकी गहराई तक पहुंचना बहुत जटिल। असीम शक्ति से परिपूर्ण यह मन अनेकानेक कार्य करना चाहता है……भागते रहना चाहता है……भोगते रहना चाहता है। परंतु यह तन एवं सामाजिक परिवेश……इनकी अपनी सीमायें हैं……अपने दायरे हैं।


मन तो अनन्त-काल तक 'गुलाब-जामुन' के स्वाद का अनुभव करना चाह सकता है पर तन साथ नहीं देगा। हां, अधिक मीठा अस्पताल का रास्ता अवश्य दिखा देगा।


मन का क्या है, वह तो चाहता है भागना……हर दिशा में, हर गली में……नाचना, गाना चाहता है……बारिश में भीगना चाहता है……बेबाक……बेलगाम। पर आचरण-संहिता शायद अनुमति न दे।


यही बेमेल मुझे इस बात का एहसास करवाता है मानो मैं अपनी किन्हीं क्षमताओं को पूरी तरह यथार्थ में परिवर्तित नहीं कर पाया अब तक। एसा प्रतीत होता है जैसे अभी कुछ और करना शेष है। और जो भी शेष है, वही अपूरित कर्म है। उसे ही पूरा करने फिर अवतरित होना होगा।


पर तब क्या यह असंतुलन समाप्त हो जायेगा? शायद नहीं। तो फिर? कदाचित तन और मन में से किसी एक को छोड़ना होगा……अभी के अभी।


तन को छोड़ दूँ तो संभवत: छुटकारा नहीं है क्यूंकि मन अधिक शक्तिशाली है……नया शरीर धारण कर लेगा……एसा बताया गया है।


तो फिर मन का परित्याग? पर कैसे? दमन से? प्रयत्न कर के देख चुका हूँ। व्यर्थ है। दमन से और अधिक बलशाली हो जाता है मन। फिर?


मन का दमन संभव नहीं है। केवल तीव्रता से आते-जाते विचारों के प्रति सचेत रहा जा सकता है, उन्हें बलपूर्वक दबाया नहीं जा सकता। सचेत रहने पर बहुत सारे विचार हास्यासपद प्रतीत होने लगते हैं और फलस्वरूप लुप्त हो जाते है……बिना प्रयत्न के। पहले एसा नहीं लगता था पर एक दिन शीशे में अपना ही क्रोध से भरा चेहरा देख कर हंस पड़ा: एकदम लाल-सुर्ख़……लंगूर जैसा लग रहा था। तब पता चला कि हर बार बाह्य शीशे की आवश्यकता नहीं है। किसी विचार अथवा भावना के प्रति मात्र आंतरिक रूप से सचेत हो जाना ही पर्याप्त है।


काफ़ी सुनहरी कुंजी है यह। पर मन चंचल है। बार-बार सबसे आसान विधी ही भूलता है और कठिन लक्ष्य के पीछे ही भागता है। किसी लक्ष्य की कठिनता ही अहं को संतुष्ट करती है और दौड़ जारी रहती है।


पर अब जब कुंजी का स्मरण हो आया है, तो चलता हूँ। शायद ताला खुल जाय।

Saturday, November 24, 2007

कुछ भी नहीं रहा जब, तो यह भी नहीं रहेगा

मैं करीब 16-17 वर्ष का रहा होऊँगा तब। ग्रीष्म ॠतु का आगमन और गेहूँ के लहलहाते खेत मन को एक अनोखे कुँवारे हर्ष से ओत-प्रोत कर देते थे। बस एक ही समस्या थी: गेहूँ के पराग से एलर्जी। वहाँ फ़सल की कटाई आरंभ हुई नहीं कि साँस उखड़ने लगती और मैं चल देता अपने नाना के यहाँ…पहाड़ों में जहां गेंहूँ न के बराबर होती है। कभी-कभी मन निराश हो जाता। उस समय मेरे नाना मुझे Theodore Tilten की कविता "Even This Shall Pass Away" का वह उर्दू रूपांतर सुनाते जो उन्होंने स्वयं किया था और मुझे आज तक याद है। अपने नाना के साथ बिताये क्षण, उनका विवेक, और हृदय के हर अवसाद को कम कर देने का सामर्थ्य रखने वाली यह कविता मुझे आज भी स्मरण हैं, मानो कल ही की बात हो। वही कविता आप सब के साथ आज बाँट रहा हूँ । मूल कविता नीचे प्रस्तुत है, जिसे आप document box के नीचे दिये गये विकल्पों द्वारा, चाहें तो डाउन्लोड भी कर सकते हैं। उर्दू रूपांतर मेरी आवाज़ में मूल कविता के नीचे है।



Monday, October 8, 2007

एक निद्राभाव रात्रि का संस्मरण



जून 21, 2000

5.40 अपराह्न

……बहुत लोग उस cyber-cafe में कम दरों के कारण जाते हैं। लेकिन मुझे उस जगह का स्थानात्मक मूल्य वहां ले जाता है। कुछ दूरी पर ही रेल-लाइन है। किसी धड़धड़ाती हुई गाड़ी के गुज़रने पर जब आस-पास सब कुछ, कुछ पल के लिये तीव्र गति के प्रभाव से कंपित हो जाता है, उसी थरथराहट का अनुभव मेरे लिये उस जगह का मूल्य है।

*

जून 22, 2000

3.20 पूर्वाह्न

मैं श्वेत, उज्ज्वल पन्ने पर लिख रहा हूँ और आज भी बचपन की तरह वाक्यों को सीधा रखने की चेष्टा में हूँ। उन पर छोड़ दूँ तो सब के सब आकाशगामी हो जाएं।

एक और नींद-रहित रात कुछ ही पहर में समाप्त होने को है। मैं अकारण ही विचलित सा यहां-वहां, इस कमरे में, उस कमरे में, बाहर बरामदे में, उपर छत पर, सब जगह घूम-फिर चुका हूँ।

संगीत भी पूरी रात रुचिकर नहीं लगा।

चांद को भी बहुत देर देखा। वह भी अब धीरे-धीरे पश्चिम की ओर सरकते हुए, धुंधले ग्रीष्मकालीन आकाश के चतुर्य भाग तक जा पहुंचा है।

पूरी रात मंद-मंद हवा के झोंके, एक अनोखी सी अलौकिकता लिये, बहुत प्यारे लगते रहे।

एक घंटे पहले मैं चौकीदर से बातें कर रहा था। मुझे रात्रि की प्रौढ़ावस्था में देख कर पहले उसका संदेह और पहचान आने पर आश्चर्य-मिश्रित प्रसन्नता मुझसे छिपी नहीं रही। कुछ देर हम बातें करते रहे। वह मुझे नेपाल में रह रहे अपने परिवार के बारे में बताता रहा। बातों-बातों में मैने भी उसकी बीड़ी से दो कश ले लिये और वह हर्षपूर्वक कल रात मिलने का वचन दे, सीटी बजाता, लाठी ठोकता मोहल्ले के शेष भाग की निगरानी करने चल पड़ा। अंदर आ कर एक-दो मीठे बिस्किट खाये, तब जा कर बीड़ी का कसैला स्वाद गया :)

अब फिर वही बोरियत थी। क्या किया जाय। TV में भी कुछ देखने लायक नहीं लगा। वही कल शाम वाले समाचार थे। धारावहिक नाटक मुझे भाते नहीं। MTV पर अर्ध-नग्न महिलायें थीं। उन्हें देख कर एहसास हुआ कि प्रकृति ने भले ही नर को कितना ही लैंगिक रूझान क्यों न दिया हो, सुबह होने से कुछ देर पहले, जब रात अधिकाधिक सघन हो, अंधकार बिल्कुल वास्तविक हो और हर ओर एकांत का पवित्र नि:शब्द गुंजन हो, मन गौण प्रेरणाओं के प्रति कम संवेदन्शील हो जाता है।

तीन बजे, पुस्तकों की शेल्फ़ में माथापच्ची करने लगा और सहसा एक बहुत पुरानी पुस्तक हाथ लग गयी। 1958 में UNESCO द्वारा प्रकाशित की गयी थी और शीर्षक था, "All Men are Brothers"। खोल कर देखा तो गाँधी जी के जीवन का सारांश और उनके विचार थे। पन्ने पलटते-पलटते, एक पैराग्राफ़ पर ध्यान रुक गया। ऐसा लगा मानो मेरे ही अंतर की आवाज़, लिखित रूप में मेरे सामने आ गयी हो। ऐसा संभव है कि अनुवाद करने से उनके लेखन की मौलिकता से समझौता हो जाय। इस लिये, उस पैराग्राफ़ को उसके मूल रूप में ही यहां उद्धृत कर रहा हूँ:

"I am not at all concerned with appearing to be consistent. In my pursuit after truth, I have discarded many ideas and learnt many new things. Older as I am in age, I have no feeling that I have ceased to grow inwardly or that my growth will stop with the dissolution of the flesh. What I am concerned with is my readiness to obey the call of truth…from moment to moment.

At the time of writing, I never think of what I have said before. My aim is not to be consistent with my previous statements on a given question, but to be consistent with truth, as it may present itself to me at a given moment. The result has been that I have grown from truth to truth….and what's more, whenever I have been obliged to compare my writing of even fifty years ago with latest, I have discovered no inconsistency between the two. But friends who observe inconsistency will do well to take the meaning which my latest writing may yield, unless of course, they prefer the old. But before making the choice, they should try to see if there is not an underlying and abiding consistency between the two seeming inconsistencies."

*

3.50 पूर्वाह्न

अब आंखें थकने लगीं हैं और मन भी एकाग्र नहीं रहा……जैसे केंद्र खो गया हो। पहले कयी बार की तरह अपने-आप से ही बात करने लगा हूँ और क्या पता बाद में स्वयं को ही स्वप्न में देखूँ……बेड पर औंधे पड़े हुए, बिना धारियों वाले श्वेत कागज़ों पर वाक्यों को सीधा रखने के संघर्ष में तल्लीन और खुले पन्ने पँखे के घुमावदार वायु प्रवाह में उड़-उड़ जाते होंगे।

4.00 पूर्वाह्न

कमरे में बहुत सीलन व गर्मी हो गयी है। अब लिखना बंद कर बाहर लान में जाऊंगा और अगर मच्छर मुझे खदेड़ने में समर्थ रहे तो एक बार फिर सीढ़ियां फांद कर छत पर चला जाऊंगा……डूबते चाँद के कुछ अंतिम पल शेष बचे हैं, उन पलों में उसके साथ रहने के लिये

Monday, September 24, 2007

लक्ष्य-रहित होने का आनंद



कल रविवार था। सोचा, कुछ देर यूँ ही गाड़ी में भ्रमण किया जाय। सुखद बात यह थी कि सड़क पर रोज़ की तरह गाड़ियों का जंगल नहीं था और मैं बिना लाल बत्ती के डर से गतिपूर्वक कहीं भी जा सकता था। पर मैं कहीं जा कहां रहा था?

एहसास हुआ कि सही मायने में भ्रमण का आनंद लेने के लिये कोई पूर्व-निर्धारित गंतव्य स्थान नहीं होना चाहिये। नहीं तो मन कई तरह के विचार बुनता रहता है……कहीं पहुंचने की इच्छा, समय पर पहुंचने की इच्छा, पहुंच कर क्या करना है, ट्रैफ़िक की खीज, लेट हो जाने की उत्कंठा……

पर जब आप कहीं न जा रहे हों, केवल ड्राइव कर रहे हों तो आप कार के इंजन की धव्नि सुन सकते हैं और जान सकते हैं कि आप की विश्वसनीय, निष्ठावान कार ठीक काम कर रही है या उसे किसी सम्स्वरण की आवश्यकता है।

आप किसी लाल बत्ती पर रुक कर उन लोगों को देख सकते हैं जो आपके साथ आ खड़ी हुई गाड़ियों में बैठे हैं। जब आप किसी में कुछ विशेष न खोज रहे हों तो आप उसे पूर्ण रूप से देख सकते हैं। परख कर देखिये। बहुत रोचक अनुभव रहेगा।

या फिर आप सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर के उन सूचना पट्टों को पढ़ सकते हैं जिन के पास से आप रोज़ गुज़रते तो हैं पर कभी यह जानने का समय न मिला हो कि वह कह क्या रहे हैं। या फिर यूँ ही घूमते-घूमते कई नये रास्ते या किसी जगह जाने के शार्ट-कट आप को ज्ञात हो जाते हैं।

राष्ट्रीय ध्वज कई जगह लगा रहता है पर रोज़ की भाग-दौड़ में ध्यान न दे पाये हों तो अब देख सकते हैं कि वह किस स्वतंत्रता और खिलखिलाहट से हवा में प्रतिदिन हम सब के लिये लहराता है।

हाँ जब किसी लक्ष्य के बारे में न सोच रहे हों तो किसी प्रियजन की याद भी आ सकती है और आप स्वच्छंदता से उसे फ़ोन कर सकते हैं……वहीं सड़क के किनारे खड़े-खड़े……बिना किसी पूर्वचिंतन या तैयारी के।

यही तो है मन की मुक्ति। नहीं? मन सब कुछ पूर्वनिर्धारित चाहता है। और पूर्वनिर्धारण तो स्वतंत्रता का विनाश कर देता है।

*

पर मन कहाँ शीघ्र हार मानता है? जल्द ही भूख ने सताना आरंभ कर दिया और किसी रेस्तरां की तलाश में चल पड़ा मैं। कोई ढाबा तो है नहीं यहां। और मेरी ड्राइव लक्ष्य-बद्ध हो गयी……

आज सुबह फिर सोमवार था। सब कुछ समयबद्ध। उनींदी आँखों से हनुमान जी को देखा और उनसे झगड़ा किया। हर बार की तरह इस बार भी स्वगत भाषण ही था। दूसरी ओर से तो कभी कोई उत्तर आता नहीं। या आता हो तो मैं निपट, उसे बूझने में हर बार अत्यंत निकम्मा ही सिद्ध होता हूँ। सो आज भी हुआ।

आफ़िस तक की ड्राइव सदा की तरह धीमी और उबाऊ थी। देर हो रही थी, ट्रैफ़िक हिल नहीं रहा था, सड़कें जाम थीं, हर ड्राइवर शत्रु जान पड़ता था, ट्रैफ़िक-सिग्नल कर्मचारियों को विलम्बित करने का षड्यंत्र प्रतीत होते थे……और कल फिर, मात्र एक खट्टा-मीठा लुभावना स्वप्न बन गया।

Saturday, September 22, 2007

अतिथि: एक लघु कथा



मैं और सुमित किशोरावस्था से ही अच्छे मित्र और बाद में एक ही व्यापार में साझीदार रहे हैं। जहां तक मैं सुमित को जानता हूं वह एक महत्वाकांक्षी तथा गतिशील व्यक्ति है और भावनाओं का उसके जीवन में कोई विशेष स्थान नहीं। पिछले वर्ष जब मैं अपने अन्य व्यापारी मित्रों से मिलने विदेश गया तो सुमित ने भी मेरे साथ भारत आने की तैयारी कर ली क्यों कि प्रतिवर्ष औपचारिकतावश ही सही वह अपने परिवार से मिलने भारत आता ही था।

हमें भारत आये दस दिन हो चुके थे और पांच दिनों बाद वह विदेश जाने वाला था, इस लिये मैं उस से मिलने उस के घर जा पहुंचा। अभी मैं ड्राइंग रूम में बैठा ही था कि मुझे सुमित, उसकी पत्नी तथा छोटी बच्ची नेहा के स्वर सुनाई दिये जो कि वार्षिक आयोजन में सम्मिलित किये जाने वाले अतिथियों की बनाई जाने वाली सूची के विषय में बात कर रहे थे। तभी उसकी पुत्री का स्पष्ट स्वर सुनाई दिया, “पापा, अतिथियों की सूची में आप एक नाम लिखना तो भूल ही गये – सुमित सहगल का। मैने अपने सभी मित्रों को इस नाम के विषय में बता कर कहा है कि यह हमारे विशेष अतिथि हैं।“

भोलेपन में कही उसकी यह बात सुन मैं आश्चर्यचकित रह गया और सोचने लगा कि छोटी बच्ची के इस सरल कथन से सुमित सम्भवतः जीवन में आपसी संबंधों के महत्व को जानने समझने लगे और मन की दूरियाँ सिमट कर भावनात्मक स्तर पर मुखर हो उठें।