हर्षवर्धन जी,
बस यात्रा में मिले सज्जन से सीख ले कर फ़ोन कर डाला उन परिचित महोदय को, जिन से कुछ दिनों से वार्तलाप की कड़ी टूट सी गयी थी। कुछ क्षण अपने आप को ताने सुनने के लिये तैयार किया, फिर नंबर मिलाया। रिंग जा रही थी। धड़कन बढ़ रही थी।
फिर उधर से आवाज़ आयी, "हेलो"
मैने भी जवाब दिया, " हेलो, जय श्री राम"
"ओहो, बड़े आदमी का फ़ोन है!!!"
चूँकि ऐसे ही किसी कटाक्ष का अंदेशा था, मैने सुना अनसुना कर दिया और पूछा,
"कैसे हैं भाई साहब?"
"अरे, क्या बतायें, कुछ दिन से तबियत ठीक नहीं थी। दफ़्तर से दो हफ़्ते की छुट्टी पर हैं"
"अरे क्या हुआ?"
"कुछ palpitations हो गये थे, सो अस्पताल वालों ने एक दिन observation में रखा, ई.सी.जी. निकाली, कुछ ब्लड टेस्ट किये। रिसल्ट तो प्राय: नार्मल ही हैं। कुछ दवा दी है पर भइये पान-पराग बंद है, पूल खेलने भी नहीं जा रहा, रम भी बंद……", वह ऐसे अंदाज़ में बोल रहे थे मानो किसी ट्रेन को लंबी प्रतीक्षा के बाद हरी झंडी मिली हो। बोलने का अंदाज़ ऐसा, मानो कह रहे हों, "देखा इतना सब कुछ हो गया और तुम्हें कुछ सुध ही नहीं"
मैं सुनता रहा चुप-चाप। मन में मिश्रित भाव थे। कुछ ग्लानि थी कि आवश्यकता पड़ने पर काम नहीं आ सका। कुछ रोष था कि ज़रूरत के समय मुझे बताया भी नहीं जनाब ने। उनके जीवन में अपने महत्व का एहसास हो गया।
कुछ और औपचारिकताओं के पश्चात फ़ोन रख दिया। कई विचार तीव्रता से एक दूसरे से भिड़ रहे थे और कुछ स्पष्ट रूप से समझ नहीं आ रहा था। कुछ मिनट बाद जब मानसिक उथल-पुथल कम हुई तो फिर अपने अंदर देखा।
फ़ोन इसलिये किया था कि निर्भरता व अहं से अधिक मूल्यवान मित्रता है। पर यह क्या? भीतर देखा तो पाया कि अहं और बलशाली हो, मुझी पर हँस रहा है। मैं आप को धोखा दे सकता हूँ, शायद स्वयं भी इस बात से मुँह मोड़ सकता हूँ कि ऐसा नहीं हुआ पर सत्य यही है कि जब अपने अंदर झांका तो पाया कि मन अपने आप को शाबाश कह रहा है। कह रहा है, "तुम बड़े महान हो, तुमने पहल की, अपने अहं को दरकिनार कर कितने सच्चे मित्र होने का प्रमाण दिया"
अब यह क्या है? अहं ही तो पिछले द्वार से फिर आ गया, नये रूप में छलने। मैं अगर अपने आप को दूसरे की तुलना में अधिक नम्र, अधिक विनीत, अधिक उदार और क्षमा-दाता समझने लगा, तो फिर उसी चक्कर में फंस गया।
वस्तुत: तुलना करना ही अहं के होने का प्रमाण है। अहं……मेरे "मैं" की भावना ही तो मुझे अलग करती है बाहरी जगत से। यहां मैं समाप्त और यहां दूसरा आरंभ। तुलना ही तो है यह। छोटा बड़े से अलग, काला सफ़ेद से, गर्मी सर्दी से, मोटा पतले से, बुद्धिमान गंवार से, सुंदर कुरूप से। हर जगह, हर पहलू में जीवन हिस्सों बट गया है इस "मैं" के कारण। और हम सब विद्यालय से सीखते आये हैं, "United we stand, Divided we fall"???
पर जानते हैं हर्षवर्धन जी, इस चक्कर में फंसने से बच गया इस बार। कैसे? वो ऐसे कि इस सारी प्रक्रिया को मैने ध्यानपूर्वक देखा और मन जो शाबाशी दे रहा था, उसे अस्वीकर कर दिया। केवल हंस दिया और इस जाल से मुक्त रहा। यह जाना कि मनुष्य अहं और उससे जुड़ी हुई तमाम विपदाओं का शिकार केवल अंजाने में ही हो सकता है। सचेत होने पर यह सारी समस्याएं झूठी हो जाती हैं क्योंकि अहं का भ्रम टूटते ही यथार्थ का अनुभव होता है।
अगर मन की शाबाशी स्वीकार कर लेता तो यह आशा बंध जाती कि अब मेरे "बड़प्पन" के एवज़ में परिचित महोदय कम से कम आभार तो व्यक्त करेंगे……मेरी पहल के लिये मुझे प्रशस्ती-पत्र तो देंगे। लेकिन अगर ऐसा न हुआ तो फिर वही चक्र्व्यूह?!
लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। इस प्रसंग का यथार्थ केवल इतना है कि हृदय से आवाज़ आयी: फ़ोन करो। और मैने कर लिया, हाल-चाल जान लिया। उन्होने तो मुझसे ऐसा करने को नहीं कहा था जो कोई आभार व्यक्त करने की आवशयकता हो उन्हें।
खैर, परिचित महोदय ने अपनी भड़ास निकाल ली। कह रहे थे एक रिपोर्ट कुछ देर बाद मिलने वाली है। उसका नतीजा बताने के लिये उनका फ़ोन नहीं आया। कोई बात नहीं। अंदर से आवाज़ आयी तो मैं ही पूछ लूंगा, "भाई साहब, राम-राम, केम छो?"