मन अत्यंत शक्तिशाली है।
इसकी उड़ान से ऊँचा उड़ना शायद संभव न हो और शायद इसकी गहराई तक पहुंचना बहुत जटिल। असीम शक्ति से परिपूर्ण यह मन अनेकानेक कार्य करना चाहता है……भागते रहना चाहता है……भोगते रहना चाहता है। परंतु यह तन एवं सामाजिक परिवेश……इनकी अपनी सीमायें हैं……अपने दायरे हैं।
मन तो अनन्त-काल तक 'गुलाब-जामुन' के स्वाद का अनुभव करना चाह सकता है पर तन साथ नहीं देगा। हां, अधिक मीठा अस्पताल का रास्ता अवश्य दिखा देगा।
मन का क्या है, वह तो चाहता है भागना……हर दिशा में, हर गली में……नाचना, गाना चाहता है……बारिश में भीगना चाहता है……बेबाक……बेलगाम। पर आचरण-संहिता शायद अनुमति न दे।
यही बेमेल मुझे इस बात का एहसास करवाता है मानो मैं अपनी किन्हीं क्षमताओं को पूरी तरह यथार्थ में परिवर्तित नहीं कर पाया अब तक। एसा प्रतीत होता है जैसे अभी कुछ और करना शेष है। और जो भी शेष है, वही अपूरित कर्म है। उसे ही पूरा करने फिर अवतरित होना होगा।
पर तब क्या यह असंतुलन समाप्त हो जायेगा? शायद नहीं। तो फिर? कदाचित तन और मन में से किसी एक को छोड़ना होगा……अभी के अभी।
तन को छोड़ दूँ तो संभवत: छुटकारा नहीं है क्यूंकि मन अधिक शक्तिशाली है……नया शरीर धारण कर लेगा……एसा बताया गया है।
तो फिर मन का परित्याग? पर कैसे? दमन से? प्रयत्न कर के देख चुका हूँ। व्यर्थ है। दमन से और अधिक बलशाली हो जाता है मन। फिर?
मन का दमन संभव नहीं है। केवल तीव्रता से आते-जाते विचारों के प्रति सचेत रहा जा सकता है, उन्हें बलपूर्वक दबाया नहीं जा सकता। सचेत रहने पर बहुत सारे विचार हास्यासपद प्रतीत होने लगते हैं और फलस्वरूप लुप्त हो जाते है……बिना प्रयत्न के। पहले एसा नहीं लगता था पर एक दिन शीशे में अपना ही क्रोध से भरा चेहरा देख कर हंस पड़ा: एकदम लाल-सुर्ख़……लंगूर जैसा लग रहा था। तब पता चला कि हर बार बाह्य शीशे की आवश्यकता नहीं है। किसी विचार अथवा भावना के प्रति मात्र आंतरिक रूप से सचेत हो जाना ही पर्याप्त है।
काफ़ी सुनहरी कुंजी है यह। पर मन चंचल है। बार-बार सबसे आसान विधी ही भूलता है और कठिन लक्ष्य के पीछे ही भागता है। किसी लक्ष्य की कठिनता ही अहं को संतुष्ट करती है और दौड़ जारी रहती है।
पर अब जब कुंजी का स्मरण हो आया है, तो चलता हूँ। शायद ताला खुल जाय।
2 comments:
v interesting insights !
ghughutibasuti
धन्यवाद घुघूति जी।
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